Wednesday, October 21, 2009

पुनर्स्थापन व पुनर्वास नीति से ही विकास सम्भव - नंदकिषोर

सभी राज्य के औद्योगिक विकास के लिये 'पुनर्स्थापना एवं पुनर्वास नीति' का होना एक आवष्यक पहलू है। झारखंड जैसे खनिज सम्पन्न राज्य में, जहां देष की कुल खनिज सम्पदा का लगभग 40 फीसदी उपलब्ध है, औद्योगिक विकास जोर न पकड़ने का एक मुख्य कारण पुनर्स्थापन एवं पुनर्वास नीति का न होना भी रहा है। यही कारण है कि राज्य बनने के बाद लगभग 65 एमओयू पर हस्ताक्षर तो हुए, लेकिन किसी पर भी काम चालू नहीं हो सका है.

झारखंड चूंकि आदिवासी बहुल राज्य है और आदिवासियों में विस्थापन एवं पुनर्वास की समस्या एक गम्भीर समस्या रही है. अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आने के बाद भी आदिवासियों की इस समस्या में कोई विषेष सुधार अब तक नहीं हो सका है. एक अध्ययन के अनुसार झारखंड में अब तक लगभग 70 लाख विस्थापित हो चुके हैं और इन विस्थापितों में सर्वाधिक 26 लाख लोग खनन कार्य के कारण विस्थापित हुए हैं. कारखानों व वृहत बांधों से जुड़ी सिंचाई परियोजनाओं के कारण भी बहुत बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए हैं. रिपोर्ट पर विष्वास किया जाये तो इन विस्थापितों में से 70 फीसदी से अधिक लोगों को आज तक पुनर्वास की सुविधा नसीब नहीं हुई है. पिछले 50 वर्षों की विकास यात्रा में यह सचाई बार-बार प्रकट हुई है कि झारखंड में आदिवासी परिवारों को जमीन के बदले जो कुछ मुआवजा मिला भी वह काफी नहीं था.

गरीब आदिवासी विस्थापित सिर्फ अपना घर-बार ही नहीं छोड़ते, बल्कि उन्हें सांस्कृतिक रूप से भी काफी हानि उठानी पड़ती है. आदिम समुदायों को अपने जमीन व मूल निवास स्थान से गहरा भावात्मक जुड़ाव रहा है, यह बात तो जगजाहिर है. ऐसे में विस्थापन उन्हें पूर्ण रूप से तोड़ देता है.

वैसे तो झारखंड में आदिवासियों की जमीन को बचाने के लिये 'छोटानागपुर काष्तकारी अधिनियम-1908' एवं 'संथापल परगना काष्तकारी अधिनियम-1949' सहित 'बिहार अनुसूचित क्षेत्र अधिनियम-1969' जैसे की कानून पहले से ही मौजूद हैं, लेकिन आज ये कानून इतने पुराने व जटिल हो चुके हैं कि वे स्वयं में समस्या के कारण बन गये हैं. उदारीकरण, निजीकरण और वैष्वीकरण के इस युग में झारखंड के प्रति देषी व विदेषी पूंजीपतियों का आकर्षण और बढ़ गया है, लेकिन उचित विस्थापन व पुनर्वास नीति के अभाव में आदिवासियों के लिये विस्थापन की समस्या को और बढ़ा दिया है.

अब जब लम्बे इंतजार के बाद ही सही, सरकार कुम्भकर्णी निद्रा से है और राज्य के पुनर्वास-नीति की घोषणा की तो आषा की किरण फिर से जगी है. 16 जुलाई, 2008 को राज्य की बहुचर्चित और बहुप्रतीक्षित पुनर्स्थापन एवं पुनर्वास-नीति को राज्य मंत्रिपरिषद ने मंजूरी प्रदान कर दी. पुनर्स्थापन एवं पुनर्वास-नीति के लागू होते ही उम्मीद की जा सकती है कि झारखंड में नये उद्योगों की स्थापना से सम्बंधित कामों में तेजी आयेगी.

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