Sunday, October 18, 2009

जवाब मांग रहा है झारखण्ड

जंगल में आदिवासी ही नहीं रहते. वहां के मूलवासी भी रहते हैं लेकिन माफी मिली केवल आदिवासियों को. कहीं ऐसा तो नहीं कि ये केंद्र की साज़िश है? झारखंड को बचाने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष कर रहे आदिवासियों और मूलवासियों में फूट डालना चाहती है. बहरहाल, इतना तो तय है कि कि केंद्र सरकार का ये कदम आदिवासियों के घाव पर महरम नहीं नमक का काम करेगा. ये कदम आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए नहीं बल्कि उनको गुमराह करने के लिए उठाया गया है. गृह-मंत्रालय का ये फैसला आदिवासियों को विश्वास में लेने की बात कहकर गुमराह किया जा रहा है.
झारखंड के राज्यपाल की अनुशंसा पर राज्य के आदिवासियों के खिलाफ चल रहे छोटे-मोटे 1लाख आपराधिक मामलों को केंद्रीय गृह-मंत्रालय ने वापस लेने का फैसला किया है। इनमें से ज्यादातर मामले संरक्षित वनों में घुसने, जानवर चराने, लकड़ी काटने और बिना अनुमति के जंगल से वनोपज एकत्र करने से जुड़े हैं. इस खबर ने ही झारखंड में आदिवासियों का सच, उनकी स्थिति, उनके साथ होने वाले व्यवहार और वहां के सामाजिक हालात को बयान कर दिया.सोचिए ज़रा. एक लाख मुकदमे सिर्फ आदिवासियों के खिलाफ. उस राज्य में जिसे आदिवासियों का ही प्रदेश माना जाता है. और मुकदमे भी बेदह मामूली. लेकिन इन मुकदमों के चक्कर में फंसकर आदिवासियों को कितनी दिक्कत झेलनी होगी? कैसे उनका शोषण हुआ होगा? अंदाज़ा लगाया सकता है. जो आदिवासी जंगल में रहता है वो जंगल में रहकर वनोपज एकत्र न करे या उनके जानवर कभी जंगल में दाखिल न हों असंभव है. इस फैसले ने जहां कई सवाल खड़े कर दिये हैं, कई सच भी सामने ला दिए हैं.सबसे बड़ा सच ये है कि झारखंड राज्य जिसे राज्य के बाहर के लोग आदिवासियों का प्रदेश समझते थे. अलग राज्य बनने के बाद वहां अब भी आदिवासी हासिये पर हैं. जिसकी गवाही देता है. उनकी जंगल से जुड़े मुकदमों की संख्या का लाख में होना. कहने की ज़रूरत नहीं है कि इसमें फर्जी मुकदमों की संख्या अच्छी खासी होगी या ये साबित किए जाने योग्य नहीं होंगे.

ये मामले जंगल और ज़मीन से जुड़े हैं.जिसके सहारे आदिवासी अपनी जिंदगी गुज़र करते हैं. वो सदियों से इन्हीं जंगल और ज़मीन के सहारे अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं पर जब इसका वो अपनी आजीविका के लिए थोड़ा दोहन करते हैं तो उन्हें मुकदमों में फंसा दिया जाता है. और एक बार सरकारी मुकदमों के जाल में आदिवासी फंस गए तो अशिक्षित और गरीब होने की वजह से वो सालों तक अदालतों के चक्कर काटते हैं. और शुरू होता है उनके शोषण का अंतहीन सिलसिला. अगर केस वन विभाग से जुड़ा है तो वन विभाग के कर्मचारियों या अधिकारियों को नहीं तो पुलिस वालों को खिलाना-पिलाना पड़ता है फिर बारी आती है वकीलों की. . अब सोचिए. इन मामूली मामलाओं के फेर में फंसकर आदिवासी कैसे अपना शोषण करवाते हैं. एक तरफ सरकार आदिवासी, उनकी जीवन शैली, उनकी संस्कृति को सहजने की बात करती है दूसरी तरफ उनके मुलाज़िम आदिवासियों को फंसाकर उनका शोषण करते हैं.जब उस आदिवासी के घर जाएंगे तो उससे शराब और मर्गे की मांग करेंगे.

आदिवासियों के हालात के बाद इस फैसले पर केंद्र सरकार की मंशा पर सवाल. केंद्र जल्द ही नक्सलियों के खिलाफ बड़ा अभियान चलाने वाली है. इस अभियान की कामयाबी आदिवासियों की भागीदारी पर निर्भर है. अगर आदिवासी सरकार का साथ देंगे तो अभियान कामयाब होगा वरना नक्सलियों को नेस्तनाबूद करने का मंसूबा धरा का धरा रह जाएगा. साफ है केंद्र सरकार नक्सलियों के खिलाफ अभियान में आदिवासियों का इस्तेमाल करेगी. आदिवासियों से नक्सलियों की गतिविधियों के बारे में जानकारी ली जाएगी. यही नहीं अगर नक्सलियों के संहार में कोई निर्दोष मारा जाता है और मानवाधिकार संगठन खड़े हो जाते हैं तो केंद्र द्वारा आदिवासियों के मुकदमे माफ करने का उस वक्त ढाल का काम करेगा. सवाल सरकार की मंशा को लेकर इसलिए भी हैं क्योंकि उसका ये फैसला जनकल्याणकारी सरकार से ज्यादा एक सांमतवादी शासक का है. जो अपने फैसले अपने फायदे नुकसान के हिसाब से करता है. ये फैसला इसलिए नहीं किया गया कि केंद्र को आदिवासियों की चिंता है. अगर होती तो ये फैसला काफी पहले ले लिया जाना चाहिए था. सरकार को न आदिवासियों की चिंता है न उनके हालात की फिक्र. अगर होती तो राज्य को अकालग्रस्त घोषित करने की मांग पर ज़रूर गौर किया जाता. पूरा राज्य अकाल की चपेट में हैं. आदिवासी इलाकों में स्थिति भयावह है. लोग दाने-दाने को मोहताज हैं. पलामू के इलाकों में किसान आत्महत्या की गुहार लगा रहे हैं. इस बारे में प्रधानमंत्री और राज्यपाल को लिखा गया . लेकिन कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला.

आसमान छूती कीमतों, अकालमृत्यु, मज़दूरो का पलायन, कानून व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति पर राज्यपाल की चुप्पी और गृहमंत्रालय की खामोशी समझ से परे है. अब जनता जवाब मांग रही है. आखिर कब तक जनता को गुमराह किया जाता रहेगा? राज्यपाल ने किसानों को मुफ्त बीज बांटने की घोषणा की. गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को मुफ्त अनाज बांटने का ऐलान किया लेकिन ये घोषणाएं फाइलों में ही दबी रह गई. बीज और अनाज बिचौलियों और संवेदनहीन अधिकारियों की भेटं चढ़ गया. पूरे राज्य में जबरदस्त आक्रोश का माहौल है. अधिकारी और पूरी व्यवस्था कभी भी लोगों के गुस्से का शिकार हो सकते हैं.

राज्य के कई इलाकों में डायरिया का प्रकोप फैलता जा रहा है. लोग अकाल मृत्यु के शिकार हो रहे हैं. शासन और प्रशासन मूक दर्शक बना हुआ है. खाद्यान और स्वास्थ्य सुरक्षा के नाम पर करोड़ों की योजनाएं बनती हैं लेकिन लोगों को लाभ नहीं मिल रहा. हृदयहीन और संवेदनहीन अधिकारियों की लूट जारी है. शासन-प्रशासन खामोश है और जनता बेबस. भ्रष्टाचार के तांडव के बीच कानून व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति से हर कोई डरा-सहमा है. सरकारी तंत्र की स्थिति ये है कि पुलिस इंस्पेक्टर तक को छह महीने की तनख्वाह नहीं मिलती और जानकारी सार्वजनिक तब होती है जब उसकी हत्या कर दी जाती है. गृह-मंत्रालय द्वारा एक लाख छोटे आपराधिक मामलो को वापस लेना आंख में धूल झोंकने की कोशिश ही मानी जाएगी क्योंकि अगर गृह-मंत्रालय और राज्यपाल आदिवासियों के हितों की रक्षा के प्रति जागरूक और गंभीर होते तो राज्य में एसपीटी एक्ट और सीएनटी एक्ट को प्रभावी तरीके से लागू करने की पहल करते.प्रशासन की मिली भगत से आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए बने कानून की सरेआम धज्ज्ाियां उड़ाई जा रही है. आदिवासियों की ज़मीने छीनकर उन्हें बेघर किया जा रहा है. क्यों खामोश है गृह-मंत्रालय और राज्यपाल?

इतना ही नहीं, राज्य में ट्राइबल एडवाइज़री कमेटी भी प्रभावी रूप से काम नहीं कर रही है. इसकी न तो नियमित बैठकें हो रही हैं और न ही ये अपने संवैधानिक दायित्वों को पूरा कर रही है. जबकि टीएसी की प्राथमिक ज़िम्मेदारी है आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए सरकार को सलाह देना. टीएसी के प्रमुख गवर्नर हैं. इसके बावजूद ये प्रभावी ढ़ंग से काम नहीं कर रहा है. आदिवासियों के हकों और हितों के प्रति गृहमंत्रालय और राज्यपाल की गंभीरता का अंदाजा टीएसी के प्रभावी नहीं होने से लगाया जा सकता है.
गृह मंत्रालय के फैसले पर संदेह की एक वजह ये भी है कि प्रदेश में पंचायत चुनाव कराने की पहल नहीं हो रही है. आदिवासियों के हितों की रक्षा करने और विश्वास जीतने के लिए 'पेसा' के तहत पंचायत चुनाव करवा आदिवासियों को विकास की मुख्यधारा में जोड़ने की कोशिश होनी चाहिए. आज़ादी के बाद से आदिवासियों का सिर्फ उत्पीड़न और शोषण हुआ है. कभी खनिज के नाम पर. कभी नक्सलवाद के नाम पर और कभी औद्योगिकीकरण के नाम पर.

आदिवासी इलाकों में अर्धसैनिक बलों की दमनात्मक कार्रवाई से पहले ऐसा कदम उठा केंद्रीय गृह-मंत्रालय आदिवासियों को खामोश करना चाहती है ताकि बड़े-बड़े उद्योगपतियों के लिए आदिवासियों की ज़मीनों को कब्जा करने में कोई दिक्कत न हो और नक्सलवाद के नाम पर इन इलाकों में भय का माहौल पैदा किया जा सके. एक तरह से देखा जाए तो केंद्र सरकार ने आदिवासियों से सौदेबाज़ी की चाल चली है. मुकदमों से मुक्ति के बदले नक्सलियों के सफाए में उनका इस्तेमाल किया जाएगा. जब इस्तेमाल हो जाएगा तो उन्हें उन्हीं के हाल पर छोड़ दिया जाएगा. यानी इस्तेमाल करो और फेंक दो. ये सच है कि झारखंड आज नक्सलियों से सबसे ज्यादा प्रभावित रहा है.जिस राज्य को विकास की दौड़ में काफी आगे होना चाहिए था वो काफी पिछड़ गया है .. लेकिन दिक्कत ये है कि नक्सवाद की जड़े हमारे व्यवस्था की खामियों में है. बिना इन खामियों को दूर किये इसे जड़ से नहीं मिटाया जा सकता. इसलिए ज़रूरी है कि व्यवस्था की खामियों का खात्मा जड़ से हो.आंख में धूल झोंकने की कोशिश न हो.

रेफेरेंस : http://www.visfot.com/index.php/jan_jeevan/1807.html

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