Thursday, October 15, 2009

महिला सशक्तीकरण - संघर्ष अभी बाकी है. दयानन्द कुमार

भारत में महिलाओं की स्थिति के विषय में कोई भी साधारणीकरण लगभग असंभव है. ऐसा विशेष रूप से इसलिये भी क्योंकि महिलाओं की स्थिति में सुधार के किये जानेवाले दावों के जवाब में कई ऐसी स्थितियां भी हैं जिससे महिला सशक्तीकरण के दावों की नींव कमजोर पड़ने लगती है और वे जगह-जगह से टूटकर अपने कमजोर होने की गवाही खुद देने लगते है, ऐसे में इस निष्कर्ष पर पहुंचना कि महिलाएं सशक्त हैं या कमजोर काफी कठिन है. पिछले महीने दो मीडिया संस्थानों इंडियन एक्सप्रेस और आईबीएन सेवेन के साथ सीएसडीएस द्वारा भारत में महिलाओं की स्थिति पर कराए गये सर्वेक्षण के नतीजे काफी रोचक हैं. हालांकि यह सर्वेक्षण 20 राज्यों और 160 स्थानों के 4000 महिलाओं पर किया गया था लेकिन इसके नतीजों से महिला सशक्तीकरण के दावों की जमीन के संबंध में काफी जानकारी मिल जाती है. सर्वेक्षण में जो रोचक बात उभरकर सामने आयी वह यह थी कि अधिसंख्य भारतीय महिलाएं घर के दायरे से बाहर निकलकर वैतनिक कार्य करने को इच्छुक थीं और जो किसी कारणवश ऐसा नहीं कर पा रही थीं वे ऐसा करना चाहती थी. उनमें से अधिसंख्य यह महसूस करती थीं कि यदि वे बाहर काम करती हैं अौर कुछ कमाकर लाती हैं तो इससे उनका सम्मान बढ़ता है. हालांकि उनमें से बहुसंख्य का यह भी मानना था कि उन्हें कार्यस्थल में पुरुषों के समान काम करने के बावजूद समान पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है और न ही कार्यस्थल में उन्हें वह सम्मान दिया जाता है जिसकी वह हकदार हैं. उनमें से बहुतों का यह भी मानना था कि कार्यस्थल में उनका शोषण किया जाता है. जिन महिलाओं पर यह सर्वेक्षण किया गया उनमें से 67 फीसदी का यह मानना था कि जो काम वे घर पर संपन्न करती हैं उसके लिये उन्हें पारिश्रमिक का भुगतान किया जाना चाहिए. इसके अलावा कई महिलाओं ने यह भी कहा कि बावजूद इसके कि उन्हें पैसे की जरूरत नहीं है वे किये गये काम का दाम पाना चाहती है. लेकिन किये गये काम का दाम मांगनेवाली महिलाओं में से कितनी महिलाएं ऐसी हैं जो अपने कमाए गये पैसे का कैसे उपयोग किया जाये यह निर्णय ले सकती है? इस सवाल का जवाब यह है कि सर्वेक्षण में शामिल महिलाओं में से केवल आधी महिलाओं ने यह स्वीकार किया कि वे यह निर्णय ले पाने की स्थिति में हैं. हालांकि अधिकांश महिलाओं ने यह स्वीकारा की निर्णय ले पाने की प्रक्रिया में उनकी भागीदारी होती है लेकिन केवल एक तिहाई महिलाओं ने यह स्वीकारा की वे अकेले यह निर्णय ले सकती है. दुखद तो यह भी है कि अधिकांश महिलाओं ने सर्वेक्षण में कहा कि वे यह निर्णय भी ले पाने की स्थिति में नहीं हैं कि वे आगे पढ़ाई करें या कहीं काम करें. यहां तक कि बहुत अधिक शिक्षित महिलाओं ने भी यह स्वीकारा कि ऐसे मसलों पर स्वतंत्र निर्णय वे अकेले नहीं ले सकती हैं. सर्वेक्षण में शामिल पांच में से केवल एक महिला ने यह स्वीकारा कि वे विवाह किससे करें इसका निर्णय वे खुद ले सकने की स्थिति में हैं. केवल एक क्षेत्र जहां वे स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकती हैं वह है उनका किसे मत दे या न दें का मुद्दा, यानी मतदान करने के मामले में वे स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकती हैं. हालांकि आधी महिलाओं ने यह स्वीकारा कि वह स्वतंत्र रूप से यह निर्णय ले सकती हैं. लेकिन आधी महिलाओं के पास यह निर्णय कर सकने की क्षमता नहीं है. ऐसे में भारत में महिलाओं की स्थिति की एक मिलीजुली तस्वीर उभरती है. महिलाएं कमाना चाहती हैं, सम्मान चाहती हैं और स्वायत्तता भी चाहती हैं लेकिन अभी भी अधिकांश महिलाओं के लिये यह चाहत दूर की कौड़ी ही है. ऐसा महिलाओं की जिन्दगी को प्रभावित करनेवाले महत्वपूर्ण मसलों जैसे शिक्षा और विवाह में भी है. इसका सीधा मतलब यह है कि कुछ महिलाओं में झलक रहे स्वाभिमान से यह दावा नहीं किया जा सकता, नहीं किया जाना चाहिए कि भारत में महिलाओं की स्थिति सचमुच सुधर गयी हैं, वे सशक्त हो गयी हैं विषेशकर तब जब इस छोटे से सर्वेक्षण में शामिल अधिकांश महिलाओं को निर्णय लेने की स्वतंत्रता या स्वायत्तता हासिल नहीं है. हालांकि इस तरह के सर्वेक्षण्ा इसलिये रोचक और महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनसे इस मुद्दे पर बहस की गुंजाइश बनती है, नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे तीन के द्वारा जारी किये गये आंकड़े भी कम चौंकाऊ नहीं हैं. साथ ही यह भारत में महिलाओं की स्थिति की विस्तृत और बहुत हद तक विश्वसनीय जानकारी हासिल करने के लहजे से भी महत्वपूर्ण हैं. यह सर्वेक्षण भारत के 29 राज्यों में करीब 1.25 लाख महिलाओं पर किया गया था. हालांकि इस सर्वेक्षण से जो तथ्य उभरकर सामने आएं हैं वे विशेष रूप से महिलाओं का हिंसक घटनाओं का शिकार बनने के ख्याल से काफी दुखद हैं. स्वास्थ्य संबंधी आंकड़े जिसमें भारत में महिलाओं जिसमें गर्भवती महिलाएं भी शामिल हैं का एनीमिया का शिकार बनना भी काफी दुर्भाग्यजनक है. इन तथ्यों से एक और स्वर यह भी उभरता है कि महिलाओं की हालत में सुधार आने के बावजूद सब कुछ अभी भी बहुत अच्छा नहीं है. उदाहरण के लिये नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे तीन के दावे बताते हैं कि 57.8 फीसदी अथवा हरेक दो में से एक गर्भवती महिला एनीमिया की शिकार है. यह इसलिये क्योंकि उन्हें पर्याप्त पोषण उपलब्ध नहीं मिल पाता और उनके स्वास्थ्य संबंधी जरूरतोें को लेकर लापरवाही बरती जाती है. इस दिशा में सबसे खराब हालत हरियाणा की है. वहां की गर्भवती महिलाओं में से 70 फीसदी महिलाएं रक्ताल्पता या एनीमिया की शिकार हैं. 15 से 49 वर्ष की विवाहित महिलाओं के समूह में उनके एनीमिया का शिकार होने की स्थिति जहां वर्ष 1998-99 में 51.89 फीसदी थी वहीं वर्ष 2005-06 में यह बढ़कर 56.1 फीसदी हो गयी. यह उस देश के लिये सचमुच अस्वीकार्य आंकड़ा है जो अपने वैश्विक महाशक्ति होने के दावे की खम ठोंकता फिरता है. अब एक दूसरे मानक की बात करें. यह मानक महिलाओं के विरुध्द आपराधिक मामलों का है. नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के वर्ष 2006 के आंकड़ों की बात करें तो हम पाते हैं कि महिलाओं के साथ बलात्कार के मामलों में 5.4 फीसदी का इजाफा हुआ है वहीं दहेज हत्या के मामलों में भी 12.2 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है. ये सारे आंकड़े दहेज से सबंधित अपराध के हैं. दहेज हत्या के मामलों से निकलकर आगे बढ़े तो दहेज निषेघ अधिनियम 1961 के अधीन दर्ज कराये गये मामलों में भी 40.6 फीसदी का इजाफा हुआ है. इसके अलावा धारा 498 ए के अधीन किसी महिला के पति द्वारा या फिर उसके संबंधी द्वारा दर्ुव्यवहार किये जाने के मामलों में भी इजाफा हुआ है. इन तथ्यों से यह भी पता चलता है कि महिलाओं के लिये सबसे सुरक्षित समझे जानेवाले घर के अंदर भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं. नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की वेबसाइट कुछ अन्य मसलों को लेकर भी महत्वपूर्ण हैं. उदाहरण के लिये उन राज्यों जहां महिलाओं के साथ सबसे ज्यादा अपराध के मामले दर्ज किये गये उनमें आंध्र प्रदेश पहले स्थान पर है, इसके बाद उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान की बारी आती है. महिलाएं जिन शहरों में सबसे अधिक आपराधिक घटनाओं का शिकार बनती हैं उनमें दिल्ली का स्थान पहला है इसके बाद हैदराबाद, मुम्बई, बंगलौर और अहमदाबाद का स्थान आता है. हालांकि महिलाओं के सशक्त होने की जो छोटे-छोटे चित्र हम अपने बीच देखते हैं उनसे महिलाओं की स्थिति में सुधार होने का सुखद एहसास हमें होता है. लेकिन यह तस्वीर मुकम्मल नहीं है इसलिये हमें जो हम देख रहे हैं उस आधी-अधूरी तस्वीर पर भरोसा न करके महिलाओं की स्थिति की मुकम्मल तस्वीर को गहराई से देखने का प्रयास करना चाहिए. क्योंकि भारत में महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिये किया गया संघर्ष अभी भी बहुत बेहतर स्थिति में नहीं है जिसका सीधा मतलब यह भी है कि संघर्ष अभी बाकी है और यह केवल एक स्तर पर नहीं बल्कि कई मंचों से और बहुविध माध्यमों से लड़ा जाना चाहिए. यह लड़ाई यथार्थ के धरातल पर संगठित होकर लड़ी जा सके इसके लिये तथ्यात्मक आंकड़ों और सचाई का ज्ञान आवश्यक है.

No comments:

Post a Comment