Wednesday, October 14, 2009

समाज के लिये अभिशाप है बाल मजदूरी - सीमा सिन्हा

बच्चे परिवार, समाज, राज्य और देश के भविष्य हैं, लेकिन तब जब परिवार, समाज, राज्य और देश उन्हें सारी सुविधाएं उपलब्ध कराये और उनकी सेवा में तत्पर रहे। किन्तु जब यही बच्चे 14 वर्ष से कम उम्र में ही अपने परिवार के सदस्यों के भरण-पोषण के लिये हाड़तोड़ मेहनत करने को मजबूर हो जायें तब उन्हें परिवार, समाज, राज्य या देश का भविष्य कैसे कहा जा सकता है? देश के अन्य राज्यों की तरह झारखंड में भी मेहनत-मजदूरी कर परिवार के सदस्यों को सुविधाएं उपलब्ध कराने वाले बाल श्रमिकों की संख्या में दिन-प्रतिदिन इजाफा होता जा रहा है। बाल श्रमिकों में नादान उम्र के बच्चों की संख्या भी तेजी से बढ़ती जा रही है।

झारखंड के ग्रामीण एवं कस्बाई इलाकों सहित राजधानी रांची में भी होटलों, ढाबों, गैराजों एवं असंगठित क्षेत्रों में बाल श्रमिकों की संख्या बढ़ती जा रही है। पढ़े-लिखे एवं संभ्रांत लोग भी बाल मजदूरों से कार्य करवाने में अपनी शान समझने लगे हैं। शहरी एवं ग्रामीण इलाकों में बाल मजदूरों का एक बड़ा वर्ग होटलों-ढाबों में बर्तन मांजते या गैराजों में नट-बोल्ट कसता हुआ दिखाई पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्रों में खेतों-खलिहानों में बाल मजदूरों से कमरतोड़ मेहनत करवायी जाती है। शहरी या कस्बाई इलाकों में इन बच्चों से घरेलू नौकरों का काम करवाया जाता है। इनमें लड़कियों की संख्या भी काफी है। इसके अलावा भवन-निर्माण, पाइप लाइन बिछाने या नालियों के निर्माण के लिये गङ्ढे खोदने, ईंट-भट्ठों में मिट्टी लाने या तैयार ईंटों को भट्ठों से निकालने, छोटे-मोटे कल-कारखानों, पत्थर तोड़ने सहित अन्य खतरनाक कार्यों में बाल श्रमिकों को लगाया जाता है।

बाल मजदूरों से बेहद अधिक काम लिया जाता है और बदले में इन्हें काफी कम मेहनताना दिया जाता है। सर्दियों में ठिठुरते हुए, गर्मियों में झुलसते हुए और बारिश में भींगते हुए हाड़तोड़ मेहनत करने के बावजूद बाल श्रमिकों को मजदूरी के नाम पर नाममात्र रुपये का भुगतान किया जाता है। साथ ही मामूली बातों पर भी बाल मजदूरों को मालिकों, ठीकेदारों की दुत्कार-गाली सुननी और मार खानी पड़ती है। कचरा, प्लास्टिक, पेपर चुनने वाले, स्टेशनों-पड़ावों पर अखबार या खाने-पीने की सामग्री बेचने वाले या जूते पॉलिश कर दो पैसे कमाने वाले बच्चे प्रत्यक्ष रूप से किसी के अधीन तो काम नहीं करते, लेकिन उन्हें असामाजिक तत्वों के शोषण का शिकार होना पड़ता है। असामाजिक तत्व ऐसे बच्चे-बच्चियों का यौन-शोषण सहित अन्य तरह का शोषण करने में पीछे नहीं रहते।

दूर-दराज के क्षेत्रों से शहर आकर काम करने वाले बाल श्रमिकों की स्थिति और भयावह है। जब सारी दुनिया सोती रहती है तब सर्दियों में भी बाल श्रमिक अहले सुबह अपने बिस्तर से निकलकर काम पर जाने की तैयारी में लग जाते हैं। इन बच्चों को पता भी नहीं चल पाता है कि कब सूरज निकला, कब डूब गया, क्योंकि जब वे वापस लौटते हैं तो सूरज अस्त हो चुका होता है। ऐसे बच्चे अपना 'बचपन' जी नहीं पाते हैं और दो जून की रोटी की जद्दोजहद में समय से पहले कम उम्र में ही 'बूढ़े' हो जाते हैं। वयस्क मजदूरों से कम मजदूरी में आसानी से मिल जाने और प्रतिकार नहीं करने के कारण लोग बाल मजदूरों से ही काम लेना पसंद करते हैं। लेकिन कार्यस्थल पर बाल मजदूरों के लिये खाने-पीने, मनोरंजन एवं शिक्षा की व्यवस्था नहीं की जाती है। बाल मजदूरों के कार्यावधि एवं अवकाश का भी निर्धारण नहीं होता है। दिन-रात जब-जब मर्जी में आये बाल मजदूरों से कार्य लिया जाता है। कार्यस्थल पर झिड़की मिलने से बालमन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। कुंठा, अभाव एवं हाड़तोड़ मेहनत के कारण बाल श्रम करने वाले बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो पाता है या कार्य नहीं करने वाले बच्चों की अपेक्षा कम होता है। ऐसे बच्चे गलत शोहबत में पड़कर नशीले पदार्थों का भी सेवन करने लग जाते हैं। पौष्टिक भोजन नहीं मिलने, जरूरत से अधिक मेहनत करने, नशीले पदार्थों का सेवन करने एवं अवसाद के कारण बाल श्रमिक तरह-तरह की घात बीमारियों के शिकार भी हो जाते हैं। साथ ही मालिकों, ठीकेदारों की दुत्कार-गाली सुनने या मार खाते-खाते बच्चे दब्बू भी हो जाते हैं। दब्बू स्वभाव के हो जाने के कारण उनका जीवन भर शोषण होता रहता है और वे प्रतिकार करने का साहस नहीं कर पाते हैं।

कुछ बाल श्रमिक प्रतिशोध की ज्वाला में जलकर अपराध की दुनिया में भी प्रवेश कर जाते हैं। दब्बू बनकर अपना शोषण कराने या अपराधी बनकर दूसरों को सताने वाले दोनों तरह के बच्चे जीवन भर समाज के लिये बोझ बन जाते हैं। ऐसे बच्चे जीवन भर ना अपना विकास कर पाते हैं और ना ही समाज के विकास में योगदान दे पाते हैं।

बाल श्रम को बढ़ावा देने वाले कारकों में गरीबी का महत्वपूर्ण स्थान है। दरअसल, बाल श्रम और गरीबी में चोली-दामन का साथ होता है। गरीब माता-पिता या अभिभावक के लिए उनके बच्चे सम्पत्ति के माफिक होते हैं। ऐसे व्यक्ति मजबूरी में ही सही, लेकिन परिवार के खर्चों के लिये बच्चों से मजदूरी करवाने को अपना अधिकार समझते हैं। कुछ परिवारों का खर्चा तो सिर्फ बच्चों की आय से ही चलता है। शिक्षा-व्यवस्था के कारण भी बाल श्रम को बढ़ावा मिल रहा है। मौजूदा शिक्षा-व्यवस्था रोजगार की गारंटी नहीं दे सकती है और इस कारण गरीब परिवार के लोगों का शिक्षा पर अटूट विश्वास नहीं है। गरीब परिवार के माता-पिता सोचते हैं कि पढ़ाई-लिखाई में समय बर्बाद करने के बजाय उनका बच्चा कोई काम-धंधा या हुनर सीख ले ताकि दो पैसे आने की गारंटी हो जाये। इसलिये बच्चों को हुनर सीखने के लिये गैराजों, ईंट भट्ठों या दर्जी की दुकानों में लगा दिया जाता है या बर्तन मांजने के लिये होटलों-ढाबों में भेज दिया जाता है। अभिभावक सोचते हैं कि उनका बच्चा हुनर सीखकर बाद में अधिक धन कमा सकता है, लेकिन होता ठीक उल्टा है। बचपन से काम करने वाला बच्चा कुंठा के कारण कभी भी कुशल या प्रशिक्षित कारीगर बन नहीं पाता है। ऐसे में वह जीवन भर निम्नतम मजदूरी पर बंधुवा मजदूर के रूप में कार्य करता रहता है। कार्यकुशल नहीं होने के कारण उसे अन्यत्र काम मिलने में परेशानी होती है। वह सदा एक ही उपक्रम में लगा रहता है। कम मजदूरी में उसके परिवार का खर्चा नहीं चल पाता और वह अपने बच्चों को भी कार्य पर लगा देता है, जिससे बाल श्रम और गरीबी दोनों बने रहते हैं।

बाल श्रम का सबसे अधिक प्रभाव वयस्क श्रम पर पड़ता है। उद्यमियों को सस्ता बाल श्रम उपलब्ध होने के कारण वे वयस्क श्रमिकों की मांग नहीं करते हैं। ऐसे में स्थानीय स्तर पर वयस्क श्रमिकों की बेरोजगारी का समस्या बढ़ती जा रही है।

बाल मजदूरी एक सामाजिक कलंक है और बाल श्रम उन्मूलन के लिये सभी को प्रयास करना चाहिये। बाल श्रम उन्मूलन के लिये माता-पिता, जनता और नियोक्ता के सोच में बदलाव लाना होगा जिससे बाल मजदूरी उन्मूलन में इनका सहयोग मिल सके। बाल श्रम कराने वाले घरों के लोगों को लज्जित करने के लिये उनके घरों के दरवाजे पर सामाजिक कलंक का एक निषान भी लगाया जाना चाहिए। बच्चों को स्कूल नहीं भेजने वाले माता-पिता के विरुध्द कार्रवाई किये जाने वाले उपबंधों से ग्रामीणों को अवगत कराया जाना चाहिए। किसी कारण से स्कूल छोड़ चुके एवं अनामांकित बच्चों का विद्यालयों में शत-प्रतिशत नामांकन सुनिश्चित कराया जाना चाहिये। साथ ही बच्चों के भोजन, रुचिकर शिक्षा एवं मनोरंजन की व्यवस्था की जानी चाहिये। बाल मजदूरी कराने वाले परिवार के सदस्यों के रोजगार की व्यवस्था की जानी चाहिये ताकि वे अपने बच्चों से मजदूरी नहीं करायें। साथ ही बाल श्रम के विरुध्द एक सर्वमान्य सोच को सर्वसाधारण में विकसित करने की आवश्यकता है ताकि इसे एक आंदोलन का रूप दिया जा सके।

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