Saturday, November 7, 2009

हाशिए को हुकूमत नहीं - सुधीर

झारखंड एकमात्र प्रदेश है जहां 31 सालों से पंचायत चुनाव नहीं हुए हैं। 2001 में ही बने दो अन्य राज्यों छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड में अब तक तीन बार पंचायती राज निकायों का गठन हो चुका है और गांव स्तर पर सशक्तीकरण की प्रक्रिया जोर पकड़ी हुई है। ग्रामीण सहभागिता पर आधारित विकास के कई मॉडल भी इन राज्यों में देखने को मिल जायेंगे। इन राज्यों में सत्ता के विकेन्द्रीकरण से स्थानीय संसाधनों के दोहन में पारदर्शिता, सहभागिता और परिसंपत्तियों के बंटवारे में एक हद तक समता और समानता के कई उदाहरण देखे जा सकते हैं।

पंचायती राज और स्थानीय निकायों के गठन में झारखंड में राजनैतिक चेतना और राजनीतिक इच्छाशक्ति दोनों का अभाव रहा है। राज्य की सत्ता में काबिज और विपक्ष में भी बैठने वाले ज्यादातर जनप्रतिनिधियों की धारणा है कि विकेन्द्रीकरण से भ्रष्टाचार बढ़ेगा। यह सामान्य मान्यता है कि कोई भी व्यक्ति या निकाय अपने बाद सत्ता के विकेन्द्रीकरण को अपनाना नहीं चाहता है। विकेन्द्रीकरण से अंततः केन्द्रीकृत शक्तियों पर जन दबाव बढ़ता है और इसी वजह से पंचायती राज चुनाव राजनीतिक दलों के एजेण्डे में रहा ही नहीं।

राजनीतिक दलों के पास बहाना है कि चूंकि मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है इसलिए चुनाव नहीं कराये जा सकते हैं। जबकि वस्तुस्थिति यह है कि न तो झारखंड हाईकोर्ट और न ही सुप्रीम कोर्ट ने राज्य में पंचायती राज चुनाव कराने पर रोक लगायी है। कोर्ट की चिंता झारखंड पंचायती राज एक्ट में विद्यमान विसंगतियों को लेकर रही और कोर्ट की मान्यता है कि सरकार चाहे तो विसंगतियां दूर कर चुनाव करा ले। झारखंड उच्च न्यायालय ने 2006 अगस्त के आदेश में कहा कि सामान्य क्षेत्र में त्रिस्तरीय पंचायती राज में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था नहीं है और यह गैर संवैधानिक है। कोर्ट अनुसूचित क्षेत्र में शत-प्रतिशत आरक्षण को भी गैर कानूनी मानता है। झारखंड में 73वें संवैधानिक संशोधन और 1996 के पेसा एक्ट के आलोक में क्रमशः सामान्य और अनुसूचित क्षेत्रों के लिए झारखंड पंचायत राज एक्ट 2001 बनाये गये हैं।
राज्य सरकार या राजनैतिक दलों की प्राथमिकता में यदि पंचायती राज होता तो कम से कम सामान्य क्षेत्र में तो महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर चुनाव करवाये ही जा सकते थे। अनुसूचित क्षेत्र में कानून बनाने या संशोधन करने में राज्य सरकार की भूमिका सीमित है। चूंकि पेसा केंद्रीय कानून है और पेसा के तहत उपलब्ध आरक्षण की व्यवस्था को खारिज करने का या इसमें संशोधन करने का अधिकार राज्य सरकार को नहीं है। राज्य में लगभग 4200 पंचायत हैं। इसमें से 2000 पंचायत सामान्य क्षेत्र में और बाकी अनुसूचित क्षेत्र में हैं।

यदि राज्य में पंचायत चुनाव हो जाते तो ग्रामीण अभिशासन में एक क्रांतिकारी बदलाव की शुरुआत होती। 4200 पंचायतों का मतलब लगभग 46 हजार जन प्रतिनिधियों का सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक विकास में सीधा हस्तक्षेप। इसका सकारात्मक असर राज्य की राजनीति पर पड़ेगा। जनता और आम लोगों के सवालों से कट कर की जाने वाली राजनीति के लिए जगह कम होगी। झारखंड पंचायती राज स्वशासन समन्वय समिति ने 2005 में एक अध्ययन में पाया था कि राज्य में पंचायत चुनाव नहीं होने से लगभग 2500 करोड़ रुपए केन्द्र से राज्य को प्राप्त नहीं हो पाये थे। यह आंकड़ा अभी 8000 करोड़ रुपये के आसपास पहुंच गया है। चूंकि पंचायती राज व्यवस्था होने के बाद ग्रामीण विकास के विभिन्न घटकों की कुल बजट का लगभग 60 फीसदी सीधे पंचायतों द्वारा ही खर्च किये जाने का प्रावधान है। 2008-09 वित्तीय वर्ष मेें राज्य सरकार ने 5000 करोड़ रुपए लैप्स किये। राशियों के लैप्स होने से अंततः गरीब जनता का हक ही मारा गया।

पंचायत चुनाव होने से ब्यूरोक्रेसी की मकड़जाल भी थोड़ी कम होती क्योंकि ज्यादातर कार्यक्रमों में योजना बनाने से लेकर लागू करने और अनुश्रवण का अधिकार ग्रामसभाओं और पंचायतों को ही होता। अभी राज्य में लगभग आधे शहरी निकायों का गठन हो गया है। क्या बदलाव आया है? रांची नगर निगम में 50 हजार से ज्यादा की योजनाओं के लिए निगम के मुख्य कार्यकारी पदाधिकारी को पार्षदों की सहमति के लिए बाट जोहना पड़ता है। यह एक तरह का संतुलन है जो ब्यूरोक्रेसी को जनता के प्रति उत्तरदायी बनाने को बाध्य करता है। चुने हुए प्रतिनिधियों को तो हर पांच साल में जनता के बीच जाना ही है। ज्यादातर मामले में प्रनिनिधि जनता के प्रति स्वतः वफादारी निभाते ही हैं।

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